BA Semester-3 DarshanShastra - Hindi book by - Saral Prshnottar Group - बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र - सरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2642
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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र : सर्ल प्रश्नोत्तर

प्रश्न- बटलर के अन्तःकरणवाद या अन्तःप्रज्ञावाद सिद्धान्त का विवेचन कीजिए।

अथवा
अंतःप्रज्ञावाद के सम्बन्ध में बटलर के विचारों का मूल्यांकन कीजिए।
अथवा
बटलर के अन्तः प्रज्ञावाद को संक्षेप में स्पष्ट कीजिए।
अथवा
अन्तः प्रज्ञावाद सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।.
अथवा
बटलर के अन्तः प्रज्ञावाद की व्याख्या एवं परीक्षण कीजिए।

उत्तर-

बिशप बटलर 18वीं शताब्दी के एक महत्वपूर्ण अन्तःकरणवादी हैं। वह शैफ्टसबरी के नैतिक इन्द्रिय सिद्धान्त में व्याप्त दोषों का निराकरण करके अन्तःकरणवाद का प्रतिपादन करते हैं। मैकेन्जी का कथन है कि "उनके द्वारा किये गये सुधार देखने में तो बहुत साधारण हैं, किन्तु वे अन्तःकरण को शैफ्टसबरी के नैतिक इन्द्रिय से नितान्त भिन्न अर्थ प्रदान करते हैं। बटलर का मत है कि अन्तःकरण स्वयंसिद्ध तत्व है। वह नैतिकता का अन्तिम मानदण्ड है।

टामस हाब्स ने 17वीं शताब्दी में प्रकृतिवाद का प्रतिपादन किया था जिसके अनुसार मानव का स्वभाव एक स्वनिष्ठ इकाई है और सभी क्रियाओं का प्रेरक स्वप्रेम है। मनुष्य का प्रमुख उद्देश्य अपने जीवन की रक्षा करना है। बटलर को उनका दृष्टिकोण मान्य नहीं है। उनका मत है कि "स्वप्रेम दूसरे प्रेरक तत्वों में से एक है, किन्तु दूसरे लोगों की भलाई की इच्छा अर्थात् उदारता भी मानव स्वभाव का आवश्यक अंग है। इसीलिए मनुष्य के आन्तरिक जीवन में विरोधी तत्वों का रहना स्वाभाविक है। इन विरोधी तत्वों के बीच समन्वय स्थापित करने वाला एक परम नियामक तत्व भी है। उन्होंने इसी तत्व को अन्तःकरण कहा है। बटलर का कथन है कि "प्रत्येक व्यक्ति में विचार का एक श्रेष्ठ तत्व या अन्तःकरण है जो हृदय गत आन्तरिक नियमों तथा बाध्य क्रियाओं में भेद करता है। वह व्यक्ति और इसके कर्म दोनों परं निर्णय देता है। कुछ कर्मों को निश्चयपूर्वक निष्पक्ष, सत्, शुभ अन्य कर्मों को पक्षपातपूर्ण, असत् और अशुभ घोषित करता है। वह बिना किसी परामर्श के न्यायाधीश के समान प्रत्येक कर्म के कर्ता की प्रशंसा और निन्दा करता है। अतः बटलर आत्मप्रेम और उदारता से भिन्न अन्तःकरण को आचरण का ब्यवस्थापक या परम नियामक तत्व स्वीकार करते हैं।

आत्मप्रेम और उदारता - बटलर ने मानव प्रकृति को एक जैविक सम्पूर्णता कहा है। इस घटक के कई तत्व हैं जो स्वाभाविक रूप से दूसरे के अधीन हैं। बटलर के अनुसार मानव स्वभाव के घटकों के रूप में भूख प्यास, क्रोध, सहानुभूति आदि की विशिष्ट प्रवृत्तियाँ होती हैं, जो विशिष्ट वस्तुओं की ओर उन्मुख रहती हैं। ये सभी प्रवृत्तियाँ प्राकृतिक हैं और नैतिक जीवन के लिये उपादान हैं। इनको नियमित करने वाले दो तत्व हैं आत्मप्रेम और उदारता। बटलर का कथन है कि "इन नियामक तत्वों का कार्य विभिन्न प्राकृतिक प्रवृत्तियों को व्यवस्थित एवं नियमित करना है। उदारता का सम्बन्ध समाज से है जबकि आत्मप्रेम व्यक्ति के निजी जीवन से सम्बन्धित है। उदारता तथा आत्मप्रेम भिन्न हैं। उदारता परार्थपरक प्रवृत्तियों को नियमित करके सामान्य शुभ में सीधे वृद्धि करता है और आत्मप्रेम स्वार्थपरक प्रवृत्तियों को नियमित करके व्यक्तिगत शुभ का लाभ कराता है। फिर भी वे पूर्णतः सम्बन्धित हैं, क्योंकि अत्यधिक आत्म-संतोष उचित उदारता दिखाने पर निर्भर है आत्मप्रेम हमारे समाज के प्रति आचरण की प्रमुख जमानत है।"

अन्तःकरण - बटलर का मत है कि आत्मप्रेम और उदारता बिना किसी कठिनाई के अपने-अपने क्षेत्रों में कार्य करते रहते हैं। आत्मप्रेम और उदारता से पृथक् एवं स्वतन्त्र तत्व अन्तःकरण है। अन्तःकरण सर्वश्रेष्ठ तत्व है तथा यह मानव जीवन के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। अन्तःकरण को आत्मप्रेम और उदारता से श्रेष्ठ इसलिए कहा गया है क्योंकि यह आवश्यकता पड़ने पर उन दो तत्वों को नियमित करके उनमें संतुलन स्थापित करता है।

बटलर ने अन्तःकरण के स्वरूप पर प्रकाश डाला है। उनका कथन है कि "जैसी इसमें बौद्धिकता है, यदि वैसी ही उसमें शक्ति होती, जैसी उसमें प्रभुता है यदि वैसा ही उसमें बल होता तो वह अवश्य ही विश्व पर शासन करता। इस प्रकार बटलर अन्तःकरण की बौद्धिकता तथा प्रभुता पर अधिक बल देते हैं। अन्तःकरण के आदेशों के विपरीत कार्य करना बहुत कठिन है। यदि व्यक्ति अन्तःकरण के आदेशों की अवहेलना करके उसके विपरीत कोई कर्म करता है तो उसे अवश्य ही पश्चाताप होता है। इससे सिद्ध होता है कि कोई भी व्यक्ति सरलता से अन्तःकरण के आदेशों की अवहेलना नहीं कर सकता है। राजर्स कहते हैं कि "अन्तःकरण हमारे लिए सत् का नियम प्रस्तुत करके हमें सीधे उसका पालन करने को बाध्य करता है।'

बटलर के अनुसार जब आत्मप्रेम और उदारता अपने-अपने क्षेत्र में बिना किसी रुकावट, विरोध या संघर्ष के अपने निश्चित कार्य को करते रहते हैं अर्थात् आत्मप्रेम स्वार्थमूलक प्रवृत्तियों को व्यवस्थित तथा नियमित करने के साथ ही उन्हें एक-दूसरे से समायोजित करता है तथा निजी शुभ लाभ में अधिकतम वृद्धि करता है, तब अन्तःकरण की वृत्ति तटस्थ बनी रहती है। इन अविरोध के क्षणों में अन्तःकरण के सम्मुख समाधान के लिए कोई समस्या नहीं रहती है। अन्तःकरण का अन्तिम निर्णय देने का कार्य इन क्षणों में स्थगित रहता है। वह आत्म या उदारता के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करता है। किन्तु जब कभी भी आत्मप्रेम और उदारता में संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाती है तब उन दोनों में किसी को भी सत् और असत् सम्बन्धी निर्णय देने का अधिकार नहीं रहता है। अब अन्तःकरण अपनी तटस्थता समाप्त करके हस्तक्षेप करता है तथा अन्तिम निर्णय देता है। बटलर का मत है कि अन्तःकरण का निर्णय आत्मप्रेम और उदारता दोनों को समान रूप से मान्य होता है।

बटलर का कथन है कि "अन्तःकरण को नैतिक नियमों का ज्ञान ही नहीं रहता है, उसे मानव संकल्प को भी नियन्त्रित करने का अधिकार है। अन्तःकरण परम नियामक तत्व है। अतः यह निर्धारित करना उसी का कार्य है कि व्यक्ति के कर्म का रूप वास्तव में कैसा होना चाहिए।' अन्तःकरण ही यह निश्चित करता है कि मानवीय संकल्प के लिए क्या करणीय है और क्या करणीय नहीं है। अन्तःकरण को प्रशंसा और निन्दा का अधिकार है। इसीलिए बटलर ने उसे प्रशंसा और निन्दा करने वाली बुद्धि कहा है। फ्राउलर एवं विल्सन का कथन है कि "इसे अन्तःकरण, नैतिक बुद्धि, नैतिक इन्द्रिय या दैवी बुद्धि कहा जा सकता है।' 

बटलर का विश्वास है कि अन्तःकरण आत्मप्रेम और उदारता के कार्यक्षेत्र में बहुत कम हस्तक्षेप करता है। जब तक अन्तः के आदेशों के अनुरूप कार्य होता रहता है, उसकी तटस्थ वृत्ति बनी रहती है। बटलर का कथन है कि "आत्मप्रेम और उदारता समस्तरीय नियामक तत्व हैं। उनमें से किसी को भी दूसरे पर आधिपत्य स्थापित करने का अधिकार नहीं है। जब उनमें संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होती है तब अन्तःकरण जो सर्वश्रेष्ठ तत्व है, अन्तिम निर्णय देता है।'

बटलर का अन्तःकरण मानव स्वभाव का सर्वश्रेष्ठ तत्व है। वह स्वरूप की दृष्टि से श्रेष्ठ है। वह कर्म के सद्-असद् का निर्णायक है। किन्तु उसे सार्वभौम नियम मानना अनुचित है। कभी-कभी अन्तःकरण के सम्मुख द्वन्द्व उत्पन्न हो जाता है और उसके लिए निर्णय लेना प्रायः असम्भव हो जाता है। अंतःकरण को अन्तिम मानदण्ड कहना भ्रामक है।

बटलर की यह स्वीकृति कि अन्तःकरण जो नैतिक नियमों का प्रत्यक्ष होता है, वह आत्मप्रेम और उदारता से श्रेष्ठ तत्व है और वह उन्हें विरोधपूर्ण स्थिति में नियन्त्रित करता है, संगत स्वीकृति है। बटलर ने अन्तःकरण के आदेश को दैवी आदेश कहकर अपने समय के प्रचलित सिद्धान्तों के मध्य समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न किया है जो एक प्रशंसनीय कार्य है। राजर्स का कथन है कि "बटलर में आंग्ल अन्तः प्रज्ञावाद का उत्तम निष्कर्ष प्राप्त होता है। उन्होंने अपने समय के व्यक्तिवाद तथा उत्तरदायित्व के समन्वय की महत्वपूर्ण समस्याओं को पहचाना है तथा कुछ सीमा तक इन्हें हल भी किया है। उन्होंने बताया है कि व्यक्ति को अपनी भलाई के लिए कार्य करने का अधिकार है। वह अपने आचरण को स्वतन्त्र रूप से नियमित करने और उस पर निर्णय देने का अधिकारी है। उनकी दृष्टि में उन अधिकारों का समाज के प्रति उत्तरदायित्व से सम्बन्ध है, जिसका वह एक अंग भी है। किन्तु उनके द्वारा प्रस्तुत समस्या का समाधान अपूर्ण और असंगत है। यह असंगति सुखवाद तथा नैतिक शुद्धिवाद के मध्य बेकार के समन्वय के प्रयास से उत्पन्न हुई है। उन्होंने व्यक्तिगत भलाई को आत्मप्रेम के लक्ष्य अर्थात् सुख से सम्बद्ध किया है और इस स्वीकृति पर किसी भी व्यवस्थित नैतिक दर्शन को आधारित नहीं किया जा सकता है।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ की अवधारणा की विवेचना कीजिए।
  2. प्रश्न- गीता में प्रतिपादित लोक संग्रह की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  3. प्रश्न- गीता के नैतिक या आदर्श सिद्धान्त का संक्षिप्त विश्लेषण कीजिए।
  4. प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की विस्तारपूर्वक व्याख्या कीजिए।
  5. प्रश्न- गीता में वर्णित गुण की विवेचना कीजिए।
  6. प्रश्न- गीता में प्रतिपादित स्वधर्म की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  7. प्रश्न- गीता में वर्णित योग शब्द की विवेचना कीजिए।
  8. प्रश्न- गीता में वर्णित वर्ण एवं आश्रम का विवेचन कीजिए।
  9. प्रश्न- स्थितप्रज्ञ के लक्षण क्या हैं? क्या मनुष्य जीवन में इस स्थिति को प्राप्त कर सकता है? संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
  10. प्रश्न- निष्काम कर्मयोग का परिचय दीजिए।
  11. प्रश्न- गीता में प्रवृत्ति और निवृत्ति से आप क्या समझते हैं?
  12. प्रश्न- कर्म के सिद्धान्त का महत्व बताइए।
  13. प्रश्न- कर्म सिद्धान्त के दोष बताइए।
  14. प्रश्न- कर्मयोग के सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  15. प्रश्न- लोक संग्रह पर टिप्पणी लिखिए।
  16. प्रश्न- भगवद्गीता में 'लोकसंग्रह के आदर्श' की विवेचना कीजिए।
  17. प्रश्न- पुरुषार्थ के अर्थ एवं महत्व की विवेचना कीजिए।
  18. प्रश्न- पुरुषार्थ की अवधारणा व विशेषताएँ स्पष्ट कीजिए।
  19. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त के रूप में पुरुषार्थ की व्याख्या कीजिए।
  20. प्रश्न- विभिन्न पुरुषार्थ की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  21. प्रश्न- पुरुषार्थ का विश्लेषण कीजिए।
  22. प्रश्न- पुरुषार्थ में सन्निहित मानवीय मूल्यों के अन्तर्सम्बन्ध की व्याख्या कीजिए।
  23. प्रश्न- पुरुषार्थ किसे कहते हैं?
  24. प्रश्न- धर्म किसे कहते हैं?
  25. प्रश्न- अर्थ किसे कहते हैं?
  26. प्रश्न- काम किसे कहते हैं?
  27. प्रश्न- धर्म पुरुषार्थ का जीवन में क्या महत्व है?
  28. प्रश्न- भारतीय नीतिशास्त्र में 'पुनर्जन्म के सिद्धान्त' की व्याख्या कीजिए।
  29. प्रश्न- धर्म-दर्शन के स्वरूप परिभाषा दीजिए तथा इसके क्षेत्रों का उल्लेख करते हुए इसकी समस्याओं का विश्लेषण कीजिए।
  30. प्रश्न- धर्म-दर्शन एवं धर्म के परस्पर सम्बन्धों का विश्लेषणात्मक विवेचन कीजिए।
  31. प्रश्न- धर्म-दर्शन के स्वरूप की व्याख्या कीजिए। यह ईश्वरशास्त्र से किस प्रकार भिन्न है?
  32. प्रश्न- धर्म और दर्शन में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  33. प्रश्न- धर्म का क्या अभिप्राय है? सामान्य धर्म के लिए मनुस्मृति में किन मानवीय गुणों का उल्लेख किया गया है?
  34. प्रश्न- विशिष्ट धर्म किसे कहते हैं? इसके प्रमुख स्वरूपों की व्याख्या कीजिए।
  35. प्रश्न- सामान्य धर्म और विशिष्ट धर्म में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  36. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं? व्याख्या कीजिए।
  37. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र के पंचमहाव्रत सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  38. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र के अणुव्रत सिद्धान्त का विवेचना कीजिए।
  39. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र की तात्विक पृष्ठभूमि का विवेचन कीजिए।
  40. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
  41. प्रश्न- परमश्रेय की संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
  42. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र में 'त्रिरत्न' की अवधारणा की विवेचन कीजिए।
  43. प्रश्न- बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग की व्याख्या कीजिए।
  44. प्रश्न- 'बोधिसत्व' किसे कहते हैं? स्पष्ट कीजिए।
  45. प्रश्न- निर्वाण के स्वरूप का विवेचन कीजिए।
  46. प्रश्न- 'अर्हत्' पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  47. प्रश्न- बुद्ध के नीतिशास्त्र में साधन विचार का विवेचन कीजिए।
  48. प्रश्न- बौद्ध के नीतिशास्त्र सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  49. प्रश्न- गांधीवाद से आप क्या समझते हैं? राज्य के कार्यक्षेत्र के सम्बन्ध में महात्मा गांधी की विचारधारा का वर्णन कीजिए।
  50. प्रश्न- गांधीवादी दर्शन का मूल आधार धर्म (सत्य और अहिंसा) था, संक्षेप में स्पष्ट करें।
  51. प्रश्न- गांधी जी की कार्य पद्धति पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
  52. प्रश्न- सत्याग्रह से आप क्या समझते हैं संक्षेप में समझाइये?
  53. प्रश्न- महात्मा गाँधी द्वारा प्रतिपादित ट्रस्टीशिप सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  54. प्रश्न- गाँधी जी के सात सामाजिक पाप कौन-से हैं?
  55. प्रश्न- गाँधी जी के एकादश व्रत कौन-से हैं? व्याख्या कीजिए।
  56. प्रश्न- नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं? परिभाषा देते हुए इसका अर्थ स्पष्ट कीजिए।
  57. प्रश्न- नीतिशास्त्र मानवशास्त्र से किस तरह जुड़ा है? स्पष्ट कीजिये।
  58. प्रश्न- नीतिशास्त्र की विषय-वस्तु क्या है? स्पष्ट कीजिए।
  59. प्रश्न- नीतिशास्त्र से क्या अभिप्राय है? इसकी प्रकृति एवं क्षेत्र बताते हुए भारतीय एवं पाश्चात्य नीतिशास्त्र में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  60. प्रश्न- नीतिशास्त्र की प्रणालियों पर एक विस्तृत निबन्ध लिखिए।
  61. प्रश्न- टेलीलॉजिकल नैतिकता और कर्तव्य आधारित नैतिकता का क्या अर्थ है? इन दोनों में अन्तर बताइए।
  62. प्रश्न- कान्ट के नैतिक सिद्धान्त को समझाइए।
  63. प्रश्न- नैतिक विकास का क्या अर्थ है? नैतिक विकास के चरणों का उल्लेख कीजिए।
  64. प्रश्न- नीतिशास्त्र एक आदर्श निर्देशक सिद्धान्त है। व्याख्या कीजिए।
  65. प्रश्न- भारतीय नीतिशास्त्र को प्राथमिक जड़े कहाँ मिलती हैं? स्पष्ट कीजिए।
  66. प्रश्न- क्या नीतिशास्त्र एक विज्ञान है?
  67. प्रश्न- नैतिक तथा नैतिक-शून्य कर्म क्या है? व्याख्या कीजिए।
  68. प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की अवधारणा की व्याख्या कीजिए और उसकी काण्ट के कर्तव्य की अवधारणा से तुलना कीजिए।
  69. प्रश्न- नैतिक कर्म तथा नैतिक-शून्य कर्म में अन्तर लिखिए।
  70. प्रश्न- ऐच्छिक तथा अनैच्छिक कर्मों से आप क्या समझते हैं?
  71. प्रश्न- ऐच्छिक व अनैच्छिक कर्म में अन्तर बताइए।
  72. प्रश्न- नैतिक निर्णय से आप क्या समझते हैं? इसका स्वरूप तथा विशेषताएँ बताइए।
  73. प्रश्न- क्या नैतिक निर्णय कर्मों के परिणाम के आधार पर होता है? विवेचना कीजिए।
  74. प्रश्न- नैतिक निर्णय एवं अन्य निर्णयों में क्या अन्तर है?
  75. प्रश्न- 'साध्यों का साम्राज्य।' व्याख्या कीजिए।
  76. प्रश्न- नैतिक चेतना से आप क्या समझते हैं?
  77. प्रश्न- नैतिक चेतना के मुख्य तत्व बताइए।
  78. प्रश्न- नैतिक परिस्थिति से आपका क्या तात्पर्य है?
  79. प्रश्न- नैतिक परिस्थिति के लक्षण बताइए।
  80. प्रश्न- नैतिक निर्णय से आप क्या समझते हैं? साधन व साध्य का नीतिशास्त्र में क्या महत्व है?
  81. प्रश्न- नैतिक निर्णय एवं तार्किक निर्णय में अंतर क्या है?
  82. प्रश्न- क्या साध्य साधन को प्रमाणित करता है?
  83. प्रश्न- नैतिक निर्णय की आवश्यक मान्यताएँ क्या हैं? व्याख्या कीजिए।
  84. प्रश्न- नैतिकता की मान्यताओं की व्याख्या कीजिए।
  85. प्रश्न- काण्ट द्वारा प्रतिपादित नैतिक मान्यताओं का वर्णन कीजिए।
  86. प्रश्न- नैतिकता में किसका प्राधिकार है "चाहिए" का या आवश्यक का।
  87. प्रश्न- अनैतिक कर्म क्या है? व्याख्या कीजिए।
  88. प्रश्न- सुखवाद से आप क्या समझते हैं? यह कितने प्रकार का होता है?
  89. प्रश्न- मनोवैज्ञानिक सुखवाद से आप क्या समझते हैं? समीक्षा कीजिए।
  90. प्रश्न- प्राचीन सुखवाद की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  91. प्रश्न- विकासवादी सुखवाद क्या है?
  92. प्रश्न- उपयोगितावाद के लिये सिजविक की क्या युक्तियाँ हैं? व्याख्या कीजिए।
  93. प्रश्न- बैन्थम के उपयोगितावाद की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  94. प्रश्न- बैंन्थम के स्थूल परसुखवाद की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।
  95. प्रश्न- मिल के परिष्कृत उपयोगितावाद का आलोचनात्मक विवरण प्रस्तुत कीजिए।
  96. प्रश्न- मिल के परिष्कृत परसुखवाद की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।
  97. प्रश्न- उपयोगितावाद एवं अन्तःअनुभूतिवाद के सापेक्षिक गुणों का संकेत कीजिए।
  98. प्रश्न- कर्मवाद का सिद्धान्त भारतीय दर्शन का मुख्य स्तम्भ है। व्याख्या कीजिए।
  99. प्रश्न- मिल के उपयोगितावाद की प्रमुख विशेषताएं क्या है?
  100. प्रश्न- "सुखवाद के विरोधाभास" को स्पष्ट कीजिए।
  101. प्रश्न- मनोवैज्ञानिक एवं नैतिक सुखवाद में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  102. प्रश्न- नैतिक सिद्धान्त के रूप में अन्तः प्रज्ञावाद का विवेचन कीजिए।
  103. प्रश्न- रसेन्द्रियवाद क्या है? विवेचन कीजिए।
  104. प्रश्न- दार्शनिक अन्तःप्रज्ञावाद का समीक्षात्मक विवेचन कीजिए।
  105. प्रश्न- बटलर के अन्तःकरणवाद या अन्तःप्रज्ञावाद सिद्धान्त का विवेचन कीजिए।
  106. प्रश्न- नैतिक गुण के विषय में अन्तः प्रज्ञावाद के विचार का विवेचन कीजिए।
  107. प्रश्न- अदार्शनिक अन्तःप्रज्ञावाद का विवेचन कीजिए।
  108. प्रश्न- काण्ट के अहेतुक आदेश के सिद्धान्त का आलोचनात्मक विवेचन कीजिए।
  109. प्रश्न- बुद्धिवाद या कठोरतावाद तथा सुखवाद क्या है? वर्णन कीजिए।
  110. प्रश्न- स्टोइकवाद क्या है? व्याख्या कीजिए।
  111. प्रश्न- मध्यकालीन बुद्धिवाद या ईसाई वैराग्यवाद की व्याख्या कीजिए।
  112. प्रश्न- काण्ट के कठोरतावाद के रूप में आधुनिक बुद्धिवाद की व्याख्या कीजिए।
  113. प्रश्न- काण्ट द्वारा प्रतिपादित नैतिक सूत्र का आलोचनात्मक परिचय दीजिए।
  114. प्रश्न- काण्ट के नैतिक सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
  115. प्रश्न- काण्ट के नीतिशास्त्र की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए एवं गीता के निष्काम कर्म से इसकी तुलना कीजिए।
  116. प्रश्न- काण्ट के बुद्धिवादी नीतिशास्त्र का समीक्षात्मक मूल्यांकन कीजिए।
  117. प्रश्न- काण्ट के अनुसार निरपेक्ष आदेश “Categorical Imprative” की व्याख्या कीजिए।
  118. प्रश्न- दण्ड के सिद्धान्त से आप क्या समझते हैं? दण्ड के प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  119. प्रश्न- दण्ड के सुधारात्मक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए। क्या मृत्युदण्ड उचित है? विवेचना किजिये।
  120. प्रश्न- दण्ड के विभिन्न सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए।
  121. प्रश्न- दण्ड का अर्थ तथा उद्देश्य क्या है?
  122. प्रश्न- दण्ड का दर्शन क्या है?

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